अधूरापन
ना चाहते भी बढ़ जाते हैं कदम पुरानी राहों पे
जहाँ बस बाकी हैं कुछ तो कदमों के निशान
जो बने थे किसी पुराने इन्सान के गुजरने से...
ना चाहते भी रोक लेता हूँ हथेलियों पे
रेत की कणों को बिखरने से
ताकि कुछ तो बचा रहे जो बस अपना है,
वर्ना क्या है इस ज़माने में?
पूरी ज़िन्दगी ही तो बस एक सपना है...
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